बनारस गंगा नदी के तट पर स्थित है। जिस तरफ काशी नरेश का किला है, उसी तरफ मेरा पैतृक निवास है। मेरा निवास काशी खण्ड में है। मुझे पता नहीं परंतु लोगों का मानना है कि बड़े ही सौभाग्यशाली लोग काशी खण्ड में निवास करते हैं। इस दृष्टि से प्रसिद्ध कथाकार काशीनाथ सिंह भी काशी खण्ड में ही रहते हैं। खैर, मेरे घर के सामने गंगा नदी तीस साल पहले ऐसे बहतीं थीं जैसे प्रशान्त महासागर। आजकल तो.............. रहने दीजिए, इस विषय पर फिर कभी। जब होश संभाला तो पता चला कि पड़ोस में ही सारनाथ है। जो ऐतिहासिकता से भरा पड़ा है। वहॉं कुछ अपने दोस्तों के साथ कब चक्कर लगा आया, आज तक ठीक-ठीक याद नहीं आता। लेकिन यह याद आता है कि जब जयशंकर प्रसाद की कहानी ममता पढ़ी। कहानी में ममता जिस स्थान पर छिपी थी उसी स्थान पर मैं अपने को खड़ा करके सामने दूर तलक खेतों को निहारता था। उस अष्टकोणीय खंडहर हो रहे भवन को मैं छू-छूकर देखता था। सारनाथ कितनी बार गया यह भी याद नहीं, पर यह याद है कि एक बार भोजपुरी फिल्मों के दिलीप कुमार कहे जाने वाले सुजीत कुमार, प्रेमानारायण, युनूस परवेज, हरि शुक्ला आदि के साथ वहॉं भोजपुरी फिल्म की शूटिंग हो रही थी। समय और भाग्य का कुछ पता नहीं होता। फिल्म की यही यूनिट मेरे गॉंव शेरपुर में एक साल बाद फिर आई, जिसमें आज के प्रख्यात कलाकार भरत कपूर भी शामिल थे और तो और ''गंगाघाट'' नामक भोजपुरी फिल्म में मुझे भी पुलिस इंस्पेक्टर का किरदार निभाने का मौका मिला। इस शूटिंग के दौरान मैंने बड़ी बारीकियों से तकनीकी चीजों को देखा, परखा और छुआ। लगभग दस दिन के प्रवास में मेरी यूनुस भाई से अच्छी खासी दोस्ती हो गई। अभी लगभग दो साल पहले युनूस भाई के निधन से तथा दो-तीन माह पूर्व सुजीत कुमार के निधन से काफी विचलित रहा। बहरहाल बात मैं सारनाथ की कर रहा था, तो आइये आपको सारनाथ ले चलता हूँ जो बनारस का ही एक उपनगर है :
विद्या, व्यवसाय और धर्म के केन्द्र के रूप में वाराणसी विश्व-विख्यात है। पास ही
बौद्धों का ऐतिहासिक केन्द्र सारनाथ भी है। वाराणसी से बस, तांगे या रिक्शे से सारनाथ आराम से पहुंच सकते है।
सारनाथ पहुंचने से पहले ही बाएं हाथ पर एक उंचे टीले पर अष्टकोण मंदिरनुमा इमारत दिखायी देती है। 1558 में अकबर ने अपने पिता हुमांयु की याद में इसे बनवाया था। इसे चौखण्डी स्तूप कहते हैं। प्रख्यात हिंदी साहित्यकार स्व. जयशंकर प्रसाद ने अपनी कहानी ममता में इसी स्मारक का उल्लेख किया है।
सारनाथ का संग्रहालय बड़ा महत्वपूर्ण है। इसका निर्माण सारनाथ में खुदाई के दौरान प्राप्त सामग्री के संरक्षण के लिए 1901 में किया गया। इसमें सिंहशीर्ष अत्यंन्त भव्य है। यही हमारा राज-चिन्ह भी है। इसमें चार सिंह हैं जो अपने आगे के दोनों पैर पृथ्वी पर टेककर पीछे पीठ मिलाकर बैठे हैं।
उनके नीचे गोल पट्टी पर एक सिंह, एक घोड़ा,एक हाथी और एक सांड की दौड़ती मूर्तिया हैं। इसके नीचे उलटा कमल बना हुआ है, जो भारतीय संस्कृति का प्रतीक माना जाता है। लाल पत्थर की बुद्ध प्रतिमा पर पायी जाती है। पूरा संग्रहालय बुद्ध तथा देवी-देवताओं आदि की मूर्तियों एवं प्राचीन दुलर्भ सामग्री से भरा पड़ा है।
संग्रहालय से निकल कर उत्तर की ओर खंडहर में घुसते हैं। यह क्या,खंडहर और रमणीक? खंडहर के अगल-बगल बाग, हरे-भरे मैदान, रंग-बिरंगे फूलों की सघन लताएं भ्रम में डाल देती हैं कि हम खंडकर में हैं या कहीं और! मकानों कों बनावट, नींव,चबूतरे आश्चर्य में डाल देते हैं। 1851 में मेजर कीटो
को यहां खुदाई के दौरान मिट्टी के पात्रों में पका हुआ चावल-दाल रखा मिला था। इससे यह अनुमान लगता है कि यह किसी बड़े भयंकर एवं आकस्मिक अग्निकाण्ड के कारण नष्ट हो गया था, जिससे भिक्षुओं को सब कुछ छोड़कर भागना पड़ा। यहीं पास में 1824 में बना भव्य जैन मंदिर है जिसमें जैनियों के ग्यारहवे तीर्थकर
श्रेयांसनाथ की प्रतिमा है। उनका जन्म इस मंदिर से डेढ़ किलोमीटर दूर सिंहपुर नामक गांव में था।
सारनाथ का धमेक स्तूप लगभग 44 मीटर ऊंचा है। लोग 'धमेक'शब्द को धर्मचक्र का अपभ्रंश बताते हैं। यह स्तूप संभवत: अशोक ने बनवाया था। गुप्तकाल में कलात्मक चित्रकारी से युक्त पत्थर इसकी बाहरी दीवालों पर जड़ दिए गए थे। यह स्तूप अशोक ने उस स्थान पर बनवाया जहां बुद्ध ने सर्वप्रथम अपने पांच साथी भिक्षुओं को धर्म-चक्र-प्रवर्तन का उपदेश दिया था। अब चलिए, पशु-पक्षियों के संसार यानी मृगदाव की ओर। मृगदाव के बारे में निम्न कथा कही जाती है-
जब बोधिसत्व ने हिरन के रूप में जन्म लिया था, उस समय उन्होंने काशी के राजा से वचन ले लिया था कि वह सब मृगों का शिकार न करेंगे बल्कि उनके पास प्रतिदिन एक हिरण स्वयं चला जाया करेगा। एक दिन गर्भिणी हिरनी की बारी आयी। उसने बोधिसत्व से अपने शिशु को बचाने के लिए कहा। मृगरूपी बोधिसत्व ने राजा के सम्मुख प्रश्न रखा-''राजन्, इसकी मृत्यु का अर्थ है, इसके गर्भस्थ शिशु की हत्या जो कि सर्वधा अनुचित है। कृपया आप बतायें कि क्या किया जाये?'' राजा ने इस तर्क से बेहद प्रसन्न होकर मृगों को अभयदान दे दिया। अब मृग स्वच्छन्द होकर वहीं रहने लगे। मृगों के आवास के कारण ही इसका नाम 'मृगदाव' पड़ गया।
अब नये विहार की ओर चलें जिसे धर्मपाल ने 1901 में बनवाया था। धर्मपाल ने मूलगंध-कुटी का निर्माण बड़े सुन्दर ढंग से करवाया है। इसका नाम महात्मा बुद्ध के आवास मूलगंध कुटी (सुगन्धित आवास) के आधार पर रखा गया है। इसकी भीतरी दीवारों पर भगवान बुद्ध का सम्पूर्ण जीवन-चरित्र सुन्दरता से जापानी चित्रकार कोसेत्सु नोसु ने उतारा है। धर्मपाल ने सारनाथ की काया-पलट की। उनकी मृत्यु 29 अप्रैल 1933 को हुई। मृगदाव के पास ही उनकी समाधि है।
यहां के अन्य दर्शनीय स्थलों में बोधिवृक्ष, चीनी मंदिर, धर्मपाल की मूर्ति, तिब्बती मंदिर, शिव मंदिर, महाबोधि विद्यालय आदि प्रमुख हैं।
श्रावण के महीने में यहां प्रत्येक सोमवार को बहुत बड़ा मेला लगता है। इस समय यहां देशी-विदेशी पर्यटक भारी मात्रा में आते हैं। यहीं आकाशवाणी वाराणसी का प्रसारण-केंद्र भी है। सारनाथ आकर्षक एवं एक अत्यंत महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल है।
बहुत सुन्दर, अपने ब्लाग को चिट्ठाजगत और हिन्दीब्लग्स से जोड दें ताकि लोगों तक पहुंचने लगे.
ReplyDeleteinteresting blog, i will visit ur blog very often, hope u go for this website to increase visitor.Happy Blogging!!!
ReplyDeleteखूब उपयोगी जानकारी और भ्रमण को प्रस्तुत करने की अनोखी शैली। इस शैली से निखरती रहेगी, जो हो गई थी मैली। ब्लॉग जगत हल है सबका, नहीं है कोई पहेली। स्वागत आपका।
ReplyDelete