Tuesday, July 6, 2010
दार्जिलिंग-जैसा मैंने देखा
दार्जिलिंग : जैसा मैंने देखा
सन् 1978 की बात है, आठवीं कक्षा पास होने के बाद पिताजी से जिद करके रेलवे स्कूल गरहरा (बरौनी जंक्शन) में
प्रवेश लिया। गरहरा का रेलवे कॉलोनी महान कवि श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' के निवास से सटा हुआ है। दिनकर जी का
पैतृक निवास सिमरिया गंगा तट पर स्थित है। यह सिमरिया घाट के नाम से ज्यादा प्रसिद्ध है। सौभाग्य देखिए इधर जहॉं
मेरा पैतृक निवास है वह बनारस के गंगा तट पर स्थित है, उधर जहॉं मेरे पिताजी रेलवे में नौकरी करते थे वह गंगा के
सिमरिया घाट के करीब स्थित था। नवीं कक्षा में मैंने गरहरा में प्रवेश लिया और पहली बार लड़कियों के साथ पढ़ने का मौका
मिला। पहले के स्कूलों में छात्र-छात्राओं को साथ पढ़ने का अवसर नितांत दुर्लभ था। मेरा किशोर मन अत्यंत प्रफुल्लित
था, लड़कियों से दोस्ती बढ़ाने के पूरे अवसर थे, विशाल रेलवे स्कूल का प्रांगण था, स्कूल के बगल से ही रेलवे लाइन गुजरती
थी जिस पर दिन रात कोयले के इंजन वाली ट्रेन छुक-छुक करके आती जाती रहती थी। स्कूल और किशोर मन का वर्णन अलग से फिर कभी करूंगा, अभी आपको बताता हूँ कि प्रसिद्ध पर्यायवरणविद सुब्बाराव जी के एक शिष्य श्री के.पी.राव से मेरी
मुलाकात गरहरा में हुई। श्री राव साहब स्काउट एवं गाइड के बहुत बड़े अधिकारी थे। यानी आप यह समझिए कि श्री के.पी.
राव रेलवे के स्काउट एवं गाइड के कमिश्नर थे तथा नौकरी के रूप में वह रेलवे में अधिकारी भी थे। श्री राव साहब मेरे
पिताजी के बैचमेट थे। स्काउट में पदाधिकारी होने के नाते वो प्रमोशन पाकर अधिकारी बन गए थे, जबकि मेरे पिताजी वहीं
के वहीं अर्थात् 'बाबू' ही थे। इसी स्काउट एवं गाइड का एक शैक्षणिक टूर दार्जिलिंग जा रहा था। स्कूल में नए होने की वजह से तथा स्काउट का कोई अनुभव न होने से मेरा मन बेचैन था कि कैसे मैं दार्जिलिंग की यात्रा में भाग लूँ। यह बात पिताजी से कही। चूंकि हम पिता-पुत्र दो ही सदस्य रेलवे के क्वार्टर में रहते थे और परिवार के सभी सदस्य बनारस के निकट वाले पैतृक निवास अर्थात् शेरपुर में रहते थे चूंकि दो ही लोग एक घर में रहते थे इसलिए आपस में घुल-मिलकर बातें होती थीं। पिताजी ने जब यह जाना कि मैं दार्जिलिंग जाना चाहता हूँ कि उन्होंने शैक्षणिक भ्रमण के सर्वेसर्वा श्री के.पी. राव साहब के पास मुझे ले गए। श्री राव जी पिताजी के अच्छे मित्र थे। उन्होंने मुझसे भी दो चार बातें कीं। आवश्यक निर्देश दिए और भ्रमण में मुझे शामिल होने की अनुमति मिल गई। दार्जिलिंग मुझे जाने का अवसर मुझे मिल गया था, ऐसा लगता था जैसे-पूरा जहान मुझे मिल गया हो। हम सभी छात्र-छात्राएं (स्काउट एवं गाइड) अपने-अपने सामान के साथ बरौनी प्लेट फार्म पर जमा हुए पर यह क्या... हमारे डिब्बे में देश के सैनिकों ने कब्जा जमा रखा था। वो किसी भी सूरत में बोगी खाली नहीं कर रहे थे। उनको जब यह बताया गया कि ये सभी बच्चे रेलवे कर्मचारियों के हैं और जब तक आप लोग कोच खाली नहीं करेंगे, तब तक यह ट्रेन यहां से नहीं चलेगी। मरता क्या न करता, येन-केन प्रकार बोगी खाली हुई हम लोगों ने अपने अड्डे जमाये और अपने सफर पर चल पड़े। यात्रा के दरम्यान राव साहब की नजर मेरे पर थी। दार्जिलिंग पहुंचते-पहुंचते कब मैं उनका निजी सहायक बन गया, यह मुझे पता ही नहीं चला। मेरा माल-असबाव राव साहब के कमरे के प्रवेश द्वार के बगल वाले कमरे में रख दिया गया, टोली बनाने की जिम्मेदारी मुझे दे दी गई, खान-पान ठीक से बन रहा है और उसका भली प्रकार से वितरण हो रहा है यह सुनिश्चित करना भी मेरी जिम्मेदारियों में शामिल कर दिया गया। एक अनोखा अनुभव उस समय मुझे यह हुआ कि बच्चों ने तो किसी भी प्रकार से मेरे बढ़ते कदम को नोटिस नहीं किया, लेकिन एक अध्यापक जिनका नाम श्री अशोक शर्मा था उन्होंने मुझे कई बार बातों-बातों में बताने की कोशिश की कि मैं बाहरी हूँ और राव साहब ही सब कुछ नहीं हैं। यद्यपि मेरी उम्र 13-14 साल की थी पर न जाने कहॉं से ऐसी समझदारी आई कि मैंने उनकी ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया।
हमारा ग्रुप दार्जिलिंग के हर हिस्से को पैदल ही घूम रहा था, राव साहब प्रत्येक शाम को खुद बच्चों के बीच में बैठते, उनके अनुभव सुनते। बाद में वो मुझे अपने पास बुलाते थे और अंग्रेजी अखबार देकर दो-चार समाचार मुझसे पढ़वाते थे, यह उनका नित्य का क्रम था।
आइये आपको मैं बताता हूँ कि लगभग तीस साल पहले दार्जिलिंग को मैंने किन नजरों से देखा था :
गर्मियों में जब कि देश के अधिकांश मैदानी भाग तेज लू के थपेड़ों से झुलस रहे होते हैं, कुछ पहाड़ी नगर इतने ठण्डे और सुहावने होते है कि बिना स्वेटर के वहां रहना मुश्किल हो जाता है। ऐसा ही एक प्रसिद्ध पहाड़ी नगर (हिल स्टेशन) है दार्जिलिंग जो पश्चिम-बंगाल में है।
न्यू जलपाइगुड़ी से छोटी लाइन सिलीगुड़ी होकर दार्जिलिंग जाती है। सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग की दूरी रेलवे-मार्ग से सौ किलोमीटर है। रास्ता पहाड़ी है और बीच के स्टेशनों में रंगटंग, कुर्सियोंग, सोनादय आदि हैं। इस मार्ग पर चलने वाली गाडि़यों की रफ्तार बहुत धीमी रहती है-इतनी धीमी कि पहाड़ी बच्चे चलती गाड़ी में आसानी से चढ़ उतर जाते हैं। दार्जिलिंग पहुंचने में इसे ग्यारह-बारह घण्टे लग जाते हैं। यह गाड़ी पहली बार 1879 में चलनी शुरू हुई थी। भाप के इंजिन से चलने वाली इस गाड़ी में ऊपर दार्जिलिंग जाते समय तीन डिब्बे और लौटते समय प्राय: चार डिब्बे होते हैं। प्रत्येक डिब्बे में लगभग चौदह यात्री बैठ सकते हैं।
तुम कहोगे कि यह भी कोई गाड़ी है-कितनी छोटी, कितनी धीमी चलने वाली, बिलकुल 'बच्चा-गाड़ी' की तरह। इंजिन के अगले हिस्से पर एक कर्मचारी बैठा रहता है जो बहुत नीची ढलान या चढ़ाव और खतरनाक मोड़ों पर पटरियों पर बालू गिराता जाता है जिससे पहिये फिसलने न पायें। यह बच्चा-गाड़ी कस्बों और शहरों के बिलकुल बीच से तथा पहाड़ों के करीब से होकर गुजरती है। कभी-कभी सड़क के साथ-साथ चलते हुए यह गाड़ी किसी मकान से बिलकुल सटकर गुजरती है।
पहाड़ी चढ़ाइयों पर चढ़ते समय यह अंग्रेजी के यू, डब्ल्यू और क्यू अक्षरों की तरह चलती है। जगह-जगह लूप बने हैं। गाड़ी जब एक वृत्त की तरह घूमकर पहाड़ों पर चलती है तो उसे 'लूप' कहते हैं।
हमने सुबह नौ बजे न्यू जलपाइगुड़ी से यह छोटी गाड़ी पकड़ी और लगभग ग्यारह घण्टे बाद रात में आठ बजे दार्जिलिंग पहुंचे। सिलीगुड़ी के आगे दोनों तरफ पहाड़ी पेड़ों और चाय-बागानों के दृश्य देखते बनते हैं। दागापुर से चाय-बागानों का घना सिलसिला आरंभ होता है और पूरे रास्ते में इन बागानों की सुंदरता देखकर हम खुशी से फूले नहीं समाते।
ये चाय-बागान इस क्षेत्र की प्रमुख फसल हैं। दार्जिलिंग की चाय तो संसारभर में प्रसिद्ध है। इस समय भारत में करीब सात सौ चाय-कम्पनियां हैं जिनमें उत्पन्न होने वाली विभिन्न किस्मों की चाय 15 रुपये से 200 रुपये किलो तक बिकती है। पहाड़ी ढलानों पर सीढि़यों वाले खेतों में चाय की खेती होती है। चाय की पत्तियां चुने जाने की सुविधा के लिए चाय के पौधों को डेढ़ मीटर से अधिक नहीं बढ़ने दिया जाता। आठ-दस दिनों के अंतर पर पत्तियों को तोड़ लिया जाता है। चाय की कच्ची पत्तियों से लेकर पेय तैयार करने तक जिनती विधियां पूरी की जाती हैं, हमने उन्हें दार्जिलिंग के चाय बागानों में देखा। चाय चुनने का काम स्त्रियां ही करती हैं।
कुर्सियोग-स्टेशन से आगे ठण्डक महसूस होने लगती है और 'घूम' पहुंचते-पहुंचते अच्छी-खासी ठण्ड पड़ने लगती है। 'घूम'-स्टेशन विश्व में सबसे अधिक ऊंचाई 2,250 मीटर है। इससे लगभग 210 मीटर नी
चे दार्जिलिंग है।
दार्जिलिंग के पहले एक खूबसूरत लूप है 'बातिसिया'। छुक-छुक-छुक करती हुई गाड़ी दार्जिलिंग-स्टेशन (ऊंचाई 2,043 मीटर) पर आ खड़ी होती है। यहीं रेलवे-लाइन भी समाप्त हो जाती है।
दार्जिलिंग-शहर की औसत ऊंचाई 2,176 मीटर है। कुछ ही दूरी पर उत्तर में सिक्किम और पश्चिम में नेपाल है। भूटान भी यहां से दूर नहीं है। दार्जिलिंग में टाइगर-पहाड़ी (हिल) से सूर्योदय देखना, कंचनजंघा का दृश्य, बच्चा-रेलगाड़ी, चाय-बागान और पुरानी नगरपालिका विशेष प्रसिद्ध है।
टाइगर-पहाड़ी जिसकी ऊंचाई 2,770 मीटर है, दार्जिलिंग से चौदह किलोमीटर दूरी पर है। यहां जाने के लिए 'घूम' आना पड़ता है। 'घूम' से इसकी दूरी 6 कि.मी. है जिसमें डेढ़ किलोमीटर का चढा़व बहुत कठिन एवं थका देने वाला है अत: अक्सर लोग जीप से जाते हैं। अपने मित्रों के साथ प्राकृतिक आनन्द लेने के लिए में पैदल ही गया। सुन्दर प्राकृतिक शोभा देखकर यात्री अपने को भी भूल जाते हैं।
चार बजे भोर के पहले ही हम वहां पहुंचे। उस समय 250-300 घुमक्कड़ सूर्योदय देखने के लिए वहां एकत्रित थे। चार बजने के कुछ देर बाद आकाश पर हल्के गुलाबी रंग की लालिमा फैलने लगी। जून का प्रथम सप्ताह था। सूर्योदय के ठीक पहले पूर्व की ओर आसमान पर एक व्यक्ति की अस्पष्ट छाया उभरने लगी और उसने खींचने-जैसा अभिनय किया और उस छाया के लुप्त होते ही सूरज का हंसता गोला आसमान से झांकने लगा।
कैमरा वाले सावधान हो गये। इस व्यक्ति की छाया के बारे में कहा जाता है कि यह सूर्य का सारथी अरूण है, जब कि कुछ लोगों के अनुसार किसी पर्वत-शिखर की छाया पड़ने से ऐसा होता है। जो भी हो, टाइगर-पहाड़ी से सूर्योदय देखना हर एक के लिए कभी न भूलने वाला दृश्य है। कंचनजंघा की चोटियां सोने-जैसी चमक रही थी, सूर्योदय के समय कंचनजंघा-शिखर बिलकुल पीला लगता है। यह शिखर भारत में सबसे ऊंचा पर्वत-शिखर है (ऊंचाई 8,598 मीटर) दोपहर में यह दूध की तरह सफेद दिखता है।
दार्जिलिंग में हिमालय-पर्वतारोहण-शिक्षण-संस्थान एवं संग्रहालय दर्शनीय है। इसकी स्थापना तेनजिंग नोर्गे एवं एडमण्ड हिलेरी के एवरेस्ट शिखर पर पहली बार चढ़ने के सम्मान में की गई थी। वे दोनों 29 मई, 1953 को दिन के साढ़े ग्यारह बजे संसार की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट (ऊंचाई 8,848 मीटर) पर चढ़ने में सफल हुए थे। इस संग्रहालय में उन दोनों के द्वारा प्रयुक्त सभी कपड़े, यंत्र व अन्य सामग्रियां रखी गयी हैं। एवरेस्ट से लाये गए पत्थर के टुकड़े भी वहां रखे हैं। पर्वतारोहण-संस्था के ठीक बगल में लगभग पचास सीटों वाला सिनेमाघर है जिसमें पर्वतारोहण-संबंधी अंग्रेजी फिल्में दिखाई जाती हैं।
यहां की 'लाल कोठी' एक खूबसूरत और मशहूर बंगला है जहां अक्सर फिल्मों की शूटिंग होती रहती है। दार्जिलिंग-नगरपालिका की स्थापना 1879 में अंग्रेजों ने की थी। यहां के अन्य दर्शनीय स्थानों में राजभवन, गोलघर (वर्धमान-प्लेस) सूर्य-मंदिर, सेंचेल-झील, जापानी मंदिर, रेस-कोर्स, वनस्पति-उद्यान, सरवरी पार्क, नायडू-स्मृति-भवन और चिडि़याघर आदि प्रसिद्ध हैं।
मकान लकड़ी के बने होते हैं। छतें तिरछी एवं ढलवां होती हैं। लोग यहां पर झरनों से पानी एकत्र किया करते हैं। पानी की कमी है। इसी कारण सार्वजनिक नल कम दिखाई देते हैं। पानी इतना ठण्डा होता है कि एक गिलास से अधिक से अथिक पिया नहीं जा सकता। प्रत्येक घर में झबरा-जाति के कुत्ते पाये जाते हैं। यहां के निवासी गर्मी के डर से नीचे(मैदानों में) आना पसन्द नहीं करते। मुख्य भाषा नेपाली और बंगला है।
यहां के अधिकतर दुकानदार पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार के रहने वाले हैं। घूम में एक बलिया-निवासी ने, यह जानकर कि हम उत्तरप्रदेश से आये हैं, जलपान कराया और कई बार अनुरोध करने पर भी यह कहकर पैसा नहीं लिया कि हम लोग बार-बार नहीं मिलेंगे।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
nice
ReplyDeleteबहुत सुन्दर यात्रा संस्मरण. धन्यवाद.
ReplyDeleteप्रिय भाई, यात्रा बहुत सुन्दर प्रभाव पैदा कर रही है, रुकनी नहीं चहिये. शुभकामनायें.
ReplyDeleteइस सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
ReplyDeleteआपका ब्लाग जगत में स्वागत है।
ReplyDeleteनियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
पढिए एक प्रेम कहानी
अब तो दार्जिलिंग जाना पड़ेगा। सुंदर मनभावक चित्रण। सरल शैली में स्पष्ट जानकारी।
ReplyDelete