बात सन् 1970-71 की है। होश संभाला ही था कि अपने को गंगा नदी के सुरम्य तट पर अवस्थित पाया। अपने विशाल पेटा में समुद्र की तरह हिलोरे मारते हुए, स्वच्छ धवन नीला पानी कोसों दूर तक हमें दिखाई देता था। जुलाई-अगस्त के इसी महीने में नदी का पानी मटमैला हो जाता था और गंगा नदी अपनी सीमाओं को लांघकर गाँव की गलियों में बहने लगती थीं। हमारी तो मौज आ जाती थी। इन्हीं गलियों में नावें चलती और नावों के ऊपर हम इठलाते-इतराते। दुर्दशा तो गाँव वालों की या यो हीं कहिए बड़ों की होती थी, जानवरों की तो सबसे बुरी गत होती थी, न रहने को जगह और न ही खाने को चारा। बचपन नदी के किनारे पर बीत रहा था जहाँ से हमें उसपार विश्व प्रसिद्ध काशी नगरी के दर्शन यों ही हो जाते थे। आज समझ में नहीं आ रहा है आपको किस मौसम का हाल सुनाऊँ, लेकिन याद आता है कि जैसे ही बाढ़-बरसात से हम ऊबरते थे वैसे ही हवा में एक शीतलता सुबह-शाम महसूस करने लगते थे। धीरे-धीरे धूप अच्छी लगने लगती थी। सुबह उठकर जब हम नित्य क्रिया के लिए खेतों में जाते थे तो घास-पत्तों पर ओस की बूँदे ऐसी शुभायमान होती थी जैसे की किसी कारीगर ने मोती बनाकर बिखेर दिए हों। गाँव की बस्ती से जैसे ही थोड़ा हम बाहर निकलते थे तो गिद्धों की टोली से हमारा सामना होता था। कई गिद्ध तो हमसे कुछ ही छोटे होते थे। हमें डर भी लगता था पर परिस्थितियाँ सबको साहसी बना देती हैं। किसी तरह से उनको डरा धमकाकर हम उनसे आगे निकल जाते थे। गिद्धों का जमावड़ा नदी के तट पर इसलिए होता था कि उसमें बहने वाले जानवरों आदि के शवों को अपना भोजन बनाते थे। नीचे नदी में जब हम नहाने जाते तो ऐसा लगता था कि जैसे दुनिया में इससे बड़ा सुख हो ही नहीं हो सकता था। खासतौर से गर्मी में। पूरा गाँव सुबह-शाम नदी में पसरा मिलता था। हमारे घर में उस समय सख्त अनुशासन लागू करने वाली सबसे बड़ी बूआ मौजूद रहती थी जो एक अध्यापक होने का अपना धर्म निभाते हुए हमारे लिए डंडे लेकर कगार पर आ खड़ी होती थी। वहाँ से जैसे ही हमारी नजर मिलने को होती, डुबकी लगाकर हम दूर निकल जाते। यदि वो हमें दस मिनट में निकालना चाहती तो हम उसे बढ़ाकर एक घंटा दस मिनट कर देते थे।
आइए अपने इसी गाँव का एक दूसरा दृश्य दिखाता हूँ जो आज भी मेरे मन में रोमांच भर देता है। घर से थोड़ी ही दूर पर सड़क के किनारे एक बहुत बड़ा बगीचा था जिसमें आम, बेल, जामुन आदि के विशालकाय वृक्ष थे। हमें सबसे ज्यादा आकर्षण आम का हुआ करता था। आम भी क्या थे जिन्हें देखकर बर्बस लार टपक जाता था। किसी में लाल-लाल, किसी में सिंदूरी, किसी पेड़ में पीले-पीले आमों को देखकर हम अपनी दस बारह साल की अवस्था में यह सोचने को भी विवश हो जाते थे कि आखिर इन आमों को कैसे पाया जाए? बहुत विचार करने के बाद हमारे बाल मंत्रिमंडल ने फैसला किया कि केवल और केवल चोरी ही एक मात्र उपाय है। पूरा ताना-बाना बुना गया। जिस दिन गाँव में रामलीला हो रही थी उस दिन हमारी टोली रामलीला देखते-देखते धीरे से खिसक ली। गहरे अंधेरे में हमने अपनी पूरी कला-कौशल दिखाई और कुछ आमों को पार करने में कामयाबी भी पाई। पर जल्दी ही हमारी कलई खुल गई और ऐसी नसीहत मिली की दुबारा हमने फिर ऐसी कोशिश नहीं की। यहाँ मैं आपको उस हरे-भरे दृश्य का चित्रण करना चाह रहा हूँ जो आज सर्वथा लुप्त प्रायः है। गाँव के बीच में बगीचा अब तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है। पिछले महीने ही इस बगीचे में जाने का मौका मिला जिसमें कुल गिनकर दो पेड़ बचे हैं। वो भी अपनी बदहाली पर आँसू बहाने पर विवश हैं।
आइए अब आपको यह बताऊँ कि मेरा प्रथम पर्यटन कहाँ का और किस तरह का था। अभी थोड़ी देर पहले मैने आपको बताया कि गंगा नदी मेरे घर के नीचे ही बहती थीं। इसी नदी से गाँव की महिलाएँ शीतला माता के दर्शन को जाया करती थी। पूरा कार्यक्रम इस प्रकार का होता था कि रात्रि नौ-दस बजे के लगभग नावें आकर किनारे लग जाती थीं और गाँव की महिलाएँ पूजा अर्चन के सामानों के साथ नाव में सवार होती थी। प्रायः बच्चे इस यात्रा में शामिल नहीं किए जाते थे किंतु मैं तो शायद भ्रमण के लिए ही अवतरित हुआ हूँ। अपनी माँ के साथ मैं शीतला माता के दर्शन हेतु उनके साथ हो लिया। नदी में नाव चल पड़ी। रात में चारो तरफ अंधकार ही अंधकार फैला था। पचीस-तीस किलोमीटर का सफर रात में दस बजे से शुरूकर केवट लोग भोर के चार-पाँच बजे शीतला माता के धाम पहुँच जाते थे। यह धाम अत्यंत प्रसिद्ध ऐतिहासिक प्रसिद्ध नगरी चुनार के उस पार स्थित है। यह चुनार वही है जहाँ आल्हा ऊदल के गीत अभी भी हवा में तैरते हैं। बाबू देवकीनंदन खत्री के चुनारगढ़ को कौन भुला सकता है! और तो और ‘मैडम बनाम राजनारायण’ को भी शायद यह देश कभी भुला पाए। प्रखर समाजवादी नेता राजनारायण शीतलामाता धाम के पास के ही रहने वाले थे। बहरहाल यहाँ पहुँचकर अम्मा हमारी नहा-धोकर हलवा पूड़ी का प्रसाद बनातीं, भोग लगातीं और तन्मय होकर तमाम पूजा अर्चना करतीं। थोड़ी ही देर में हम हलवा पूड़ी का विधिवत भोग लगाते। जाते समय तो कब निद्रा देवी की गोद में हम समा जाते थे पता ही नहीं लगता किंतु दोपहर में वापस आते समय हम पूरी नाव यात्रा का आनंद लेते। वहाँ से चलने से पहले लगभग सभी लोग छोटे-बड़े तरबूज और खरबूजे की खरीद भी होती थी। दिन के तीन-चार बजे तक हम अपने गाँव वापस आ जाते थे।
आप कह सकते हैं कि सात-आठ साल की उम्र में की गयी यह यात्रा हमारी पहली यात्रा का खिताब पाती है।
Tuesday, July 20, 2010
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sir namaskaar
ReplyDeleteaanand aagaya padhakar bhi aur aapko blog par dekhkar bhi. aapke saath ham bhi bharat ghoom lenge.