Tuesday, July 20, 2010

भारत भ्रमण की पहली यात्रा

बात सन् 1970-71 की है। होश संभाला ही था कि अपने को गंगा नदी के सुरम्य तट पर अवस्थित पाया। अपने विशाल पेटा में समुद्र की तरह हिलोरे मारते हुए, स्वच्छ धवन नीला पानी कोसों दूर तक हमें दिखाई देता था। जुलाई-अगस्त के इसी महीने में नदी का पानी मटमैला हो जाता था और गंगा नदी अपनी सीमाओं को लांघकर गाँव की गलियों में बहने लगती थीं। हमारी तो मौज आ जाती थी। इन्हीं गलियों में नावें चलती और नावों के ऊपर हम इठलाते-इतराते। दुर्दशा तो गाँव वालों की या यो हीं कहिए बड़ों की होती थी, जानवरों की तो सबसे बुरी गत होती थी, न रहने को जगह और न ही खाने को चारा। बचपन नदी के किनारे पर बीत रहा था जहाँ से हमें उसपार विश्व प्रसिद्ध काशी नगरी के दर्शन यों ही हो जाते थे। आज समझ में नहीं आ रहा है आपको किस मौसम का हाल सुनाऊँ, लेकिन याद आता है कि जैसे ही बाढ़-बरसात से हम ऊबरते थे वैसे ही हवा में एक शीतलता सुबह-शाम महसूस करने लगते थे। धीरे-धीरे धूप अच्छी लगने लगती थी। सुबह उठकर जब हम नित्य क्रिया के लिए खेतों में जाते थे तो घास-पत्तों पर ओस की बूँदे ऐसी शुभायमान होती थी जैसे की किसी कारीगर ने मोती बनाकर बिखेर दिए हों। गाँव की बस्ती से जैसे ही थोड़ा हम बाहर निकलते थे तो गिद्धों की टोली से हमारा सामना होता था। कई गिद्ध तो हमसे कुछ ही छोटे होते थे। हमें डर भी लगता था पर परिस्थितियाँ सबको साहसी बना देती हैं। किसी तरह से उनको डरा धमकाकर हम उनसे आगे निकल जाते थे। गिद्धों का जमावड़ा नदी के तट पर इसलिए होता था कि उसमें बहने वाले जानवरों आदि के शवों को अपना भोजन बनाते थे। नीचे नदी में जब हम नहाने जाते तो ऐसा लगता था कि जैसे दुनिया में इससे बड़ा सुख हो ही नहीं हो सकता था। खासतौर से गर्मी में। पूरा गाँव सुबह-शाम नदी में पसरा मिलता था। हमारे घर में उस समय सख्त अनुशासन लागू करने वाली सबसे बड़ी बूआ मौजूद रहती थी जो एक अध्यापक होने का अपना धर्म निभाते हुए हमारे लिए डंडे लेकर कगार पर आ खड़ी होती थी। वहाँ से जैसे ही हमारी नजर मिलने को होती, डुबकी लगाकर हम दूर निकल जाते। यदि वो हमें दस मिनट में निकालना चाहती तो हम उसे बढ़ाकर एक घंटा दस मिनट कर देते थे।
आइए अपने इसी गाँव का एक दूसरा दृश्य दिखाता हूँ जो आज भी मेरे मन में रोमांच भर देता है। घर से थोड़ी ही दूर पर सड़क के किनारे एक बहुत बड़ा बगीचा था जिसमें आम, बेल, जामुन आदि के विशालकाय वृक्ष थे। हमें सबसे ज्यादा आकर्षण आम का हुआ करता था। आम भी क्या थे जिन्हें देखकर बर्बस लार टपक जाता था। किसी में लाल-लाल, किसी में सिंदूरी, किसी पेड़ में पीले-पीले आमों को देखकर हम अपनी दस बारह साल की अवस्था में यह सोचने को भी विवश हो जाते थे कि आखिर इन आमों को कैसे पाया जाए? बहुत विचार करने के बाद हमारे बाल मंत्रिमंडल ने फैसला किया कि केवल और केवल चोरी ही एक मात्र उपाय है। पूरा ताना-बाना बुना गया। जिस दिन गाँव में रामलीला हो रही थी उस दिन हमारी टोली रामलीला देखते-देखते धीरे से खिसक ली। गहरे अंधेरे में हमने अपनी पूरी कला-कौशल दिखाई और कुछ आमों को पार करने में कामयाबी भी पाई। पर जल्दी ही हमारी कलई खुल गई और ऐसी नसीहत मिली की दुबारा हमने फिर ऐसी कोशिश नहीं की। यहाँ मैं आपको उस हरे-भरे दृश्य का चित्रण करना चाह रहा हूँ जो आज सर्वथा लुप्त प्रायः है। गाँव के बीच में बगीचा अब तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है। पिछले महीने ही इस बगीचे में जाने का मौका मिला जिसमें कुल गिनकर दो पेड़ बचे हैं। वो भी अपनी बदहाली पर आँसू बहाने पर विवश हैं।
आइए अब आपको यह बताऊँ कि मेरा प्रथम पर्यटन कहाँ का और किस तरह का था। अभी थोड़ी देर पहले मैने आपको बताया कि गंगा नदी मेरे घर के नीचे ही बहती थीं। इसी नदी से गाँव की महिलाएँ शीतला माता के दर्शन को जाया करती थी। पूरा कार्यक्रम इस प्रकार का होता था कि रात्रि नौ-दस बजे के लगभग नावें आकर किनारे लग जाती थीं और गाँव की महिलाएँ पूजा अर्चन के सामानों के साथ नाव में सवार होती थी। प्रायः बच्चे इस यात्रा में शामिल नहीं किए जाते थे किंतु मैं तो शायद भ्रमण के लिए ही अवतरित हुआ हूँ। अपनी माँ के साथ मैं शीतला माता के दर्शन हेतु उनके साथ हो लिया। नदी में नाव चल पड़ी। रात में चारो तरफ अंधकार ही अंधकार फैला था। पचीस-तीस किलोमीटर का सफर रात में दस बजे से शुरूकर केवट लोग भोर के चार-पाँच बजे शीतला माता के धाम पहुँच जाते थे। यह धाम अत्यंत प्रसिद्ध ऐतिहासिक प्रसिद्ध नगरी चुनार के उस पार स्थित है। यह चुनार वही है जहाँ आल्हा ऊदल के गीत अभी भी हवा में तैरते हैं। बाबू देवकीनंदन खत्री के चुनारगढ़ को कौन भुला सकता है! और तो और ‘मैडम बनाम राजनारायण’ को भी शायद यह देश कभी भुला पाए। प्रखर समाजवादी नेता राजनारायण शीतलामाता धाम के पास के ही रहने वाले थे। बहरहाल यहाँ पहुँचकर अम्मा हमारी नहा-धोकर हलवा पूड़ी का प्रसाद बनातीं, भोग लगातीं और तन्मय होकर तमाम पूजा अर्चना करतीं। थोड़ी ही देर में हम हलवा पूड़ी का विधिवत भोग लगाते। जाते समय तो कब निद्रा देवी की गोद में हम समा जाते थे पता ही नहीं लगता किंतु दोपहर में वापस आते समय हम पूरी नाव यात्रा का आनंद लेते। वहाँ से चलने से पहले लगभग सभी लोग छोटे-बड़े तरबूज और खरबूजे की खरीद भी होती थी। दिन के तीन-चार बजे तक हम अपने गाँव वापस आ जाते थे।
आप कह सकते हैं कि सात-आठ साल की उम्र में की गयी यह यात्रा हमारी पहली यात्रा का खिताब पाती है।

Tuesday, July 6, 2010

दार्जिलिंग-जैसा मैंने देखा


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

दार्जिलिंग : जैसा मैंने देखा

सन् 1978 की बात है, आठवीं कक्षा पास होने के बाद पिताजी से जिद करके रेलवे स्‍कूल गरहरा (बरौनी जंक्‍शन) में
प्रवेश लिया। गरहरा का रेलवे कॉलोनी महान कवि श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' के निवास से सटा हुआ है। दिनकर जी का
पैतृक निवास सिमरिया गंगा तट पर स्थित है। यह सिमरिया घाट के नाम से ज्‍यादा प्रसिद्ध है। सौभाग्‍य देखिए इधर जहॉं
मेरा पैतृक निवास है वह बनारस के गंगा तट पर स्थित है, उधर जहॉं मेरे पिताजी रेलवे में नौकरी करते थे वह गंगा के
सिमरिया घाट के करीब स्थित था। नवीं कक्षा में मैंने गरहरा में प्रवेश लिया और पहली बार लड़कियों के साथ पढ़ने का मौका
मिला। पहले के स्‍कूलों में छात्र-छात्राओं को साथ पढ़ने का अवसर नितांत दुर्लभ था। मेरा किशोर मन अत्‍यंत प्रफुल्लित
था, लड़कियों से दोस्‍ती बढ़ाने के पूरे अवसर थे, विशाल रेलवे स्‍कूल का प्रांगण था, स्‍कूल के बगल से ही रेलवे लाइन गुजरती
थी जिस पर दिन रात कोयले के इंजन वाली ट्रेन छुक-छुक करके आती जाती रहती थी। स्‍कूल और किशोर मन का वर्णन अलग से फिर कभी करूंगा, अभी आपको बताता हूँ कि प्रसिद्ध पर्यायवरणविद सुब्‍बाराव जी के एक शिष्‍य श्री के.पी.राव से मेरी
मुलाकात गरहरा में हुई। श्री राव साहब स्‍काउट एवं गाइड के बहुत बड़े अधिकारी थे। यानी आप यह समझिए कि श्री के.पी.
राव रेलवे के स्‍काउट एवं गाइड के कमिश्‍नर थे तथा नौकरी के रूप में वह रेलवे में अधिकारी भी थे। श्री राव साहब मेरे
पिताजी के बैचमेट थे। स्‍काउट में पदाधिकारी होने के नाते वो प्रमोशन पाकर अधिकारी बन गए थे, जबकि मेरे पिताजी वहीं
के वहीं अर्थात् 'बाबू' ही थे। इसी स्‍काउट एवं गाइड का एक शैक्षणिक टूर दार्जिलिंग जा रहा था। स्‍कूल में नए होने की वजह से तथा स्‍काउट का कोई अनुभव न होने से मेरा मन बेचैन था कि कैसे मैं दार्जिलिंग की यात्रा में भाग लूँ। यह बात पिताजी से कही। चूंकि हम पिता-पुत्र दो ही सदस्‍य रेलवे के क्‍वार्टर में रहते थे और परिवार के सभी सदस्‍य बनारस के निकट वाले पैतृक निवास अर्थात् शेरपुर में रहते थे चूंकि दो ही लोग एक घर में रहते थे इसलिए आपस में घुल-मिलकर बातें होती थीं। पिताजी ने जब यह जाना कि मैं दार्जिलिंग जाना चाहता हूँ कि उन्‍होंने शैक्षणिक भ्रमण के सर्वेसर्वा श्री के.पी. राव साहब के पास मुझे ले गए। श्री राव जी पिताजी के अच्‍छे मित्र थे। उन्‍होंने मुझसे भी दो चार बातें कीं। आवश्‍यक निर्देश दिए और भ्रमण में मुझे शामिल होने की अनुमति मिल गई। दार्जिलिंग मुझे जाने का अवसर मुझे मिल गया था, ऐसा लगता था जैसे-पूरा जहान मुझे मिल गया हो। हम सभी छात्र-छात्राएं (स्‍काउट एवं गाइड) अपने-अपने सामान के साथ बरौनी प्‍लेट फार्म पर जमा हुए पर यह क्‍या... हमारे डिब्‍बे में देश के सैनिकों ने कब्‍जा जमा रखा था। वो किसी भी सूरत में बोगी खाली नहीं कर रहे थे। उनको जब यह बताया गया कि ये सभी बच्‍चे रेलवे कर्मचारियों के हैं और जब तक आप लोग कोच खाली नहीं करेंगे, तब तक यह ट्रेन यहां से नहीं चलेगी। मरता क्‍या न करता, येन-केन प्रकार बोगी खाली हुई हम लोगों ने अपने अड्डे जमाये और अपने सफर पर चल पड़े। यात्रा के दरम्‍यान राव साहब की नजर मेरे पर थी। दार्जिलिंग पहुंचते-पहुंचते कब मैं उनका निजी सहायक बन गया, यह मुझे पता ही नहीं चला। मेरा माल-असबाव राव साहब के कमरे के प्रवेश द्वार के बगल वाले कमरे में रख दिया गया, टोली बनाने की जिम्‍मेदारी मुझे दे दी गई, खान-पान ठीक से बन रहा है और उसका भली प्रकार से वितरण हो रहा है यह सुनिश्चित करना भी मेरी जिम्‍मेदारियों में शामिल कर दिया गया। एक अनोखा अनुभव उस समय मुझे यह हुआ कि बच्‍चों ने तो किसी भी प्रकार से मेरे बढ़ते कदम को नोटिस नहीं किया, लेकिन एक अध्‍यापक जिनका नाम श्री अशोक शर्मा था उन्‍होंने मुझे कई बार बातों-बातों में बताने की कोशिश की कि मैं बाहरी हूँ और राव साहब ही सब कुछ नहीं हैं। यद्यपि मेरी उम्र 13-14 साल की थी पर न जाने कहॉं से ऐसी समझदारी आई कि मैंने उनकी ओर कभी ध्‍यान ही नहीं दिया।
हमारा ग्रुप दार्जिलिंग के हर हिस्‍से को पैदल ही घूम रहा था, राव साहब प्रत्‍येक शाम को खुद बच्‍चों के बीच में बैठते, उनके अनुभव सुनते। बाद में वो मुझे अपने पास बुलाते थे और अंग्रेजी अखबार देकर दो-चार समाचार मुझसे पढ़वाते थे, यह उनका नित्‍य का क्रम था।
आइये आपको मैं बताता हूँ कि लगभग तीस साल पहले दार्जिलिंग को मैंने किन नजरों से देखा था :

गर्मियों में जब कि देश के अधिकांश मैदानी भाग तेज लू के थपेड़ों से झुलस रहे होते हैं, कुछ पहाड़ी नगर इतने ठण्‍डे और सुहावने होते है कि बिना स्‍वेटर के वहां रहना मुश्किल हो जाता है। ऐसा ही एक प्रसिद्ध पहाड़ी नगर (हिल स्‍टेशन) है दार्जिलिंग जो पश्चिम-बंगाल में है।
न्‍यू जलपाइगुड़ी से छोटी लाइन सिलीगुड़ी होकर दार्जिलिंग जाती है। सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग की दूरी रेलवे-मार्ग से सौ किलोमीटर है। रास्‍ता पहाड़ी है और बीच के स्‍टेशनों में रंगटंग, कुर्सियोंग, सोनादय आदि हैं। इस मार्ग पर चलने वाली गाडि़यों की रफ्तार बहुत धीमी रहती है-इतनी धीमी कि पहाड़ी बच्‍चे चलती गाड़ी में आसानी से चढ़ उतर जाते हैं। दार्जिलिंग पहुंचने में इसे ग्‍यारह-बारह घण्‍टे लग जाते हैं। यह गाड़ी पहली बार 1879 में चलनी शुरू हुई थी। भाप के इंजिन से चलने वाली इस गाड़ी में ऊपर दार्जिलिंग जाते समय तीन डिब्‍बे और लौटते समय प्राय: चार डिब्‍बे होते हैं। प्रत्‍येक डिब्‍बे में लगभग चौदह यात्री बैठ सकते हैं।
तुम कहोगे कि यह भी कोई गाड़ी है-कितनी छोटी, कितनी धीमी चलने वाली, बिलकुल 'बच्‍चा-गाड़ी' की तरह। इंजिन के अगले हिस्‍से पर एक कर्मचारी बैठा रहता है जो बहुत नीची ढलान या चढ़ाव और खतरनाक मोड़ों पर पटरियों पर बालू गिराता जाता है जिससे पहिये फिसलने न पायें। यह बच्‍चा-गाड़ी कस्‍बों और शहरों के बिलकुल बीच से तथा पहाड़ों के करीब से होकर गुजरती है। कभी-कभी सड़क के साथ-साथ चलते हुए यह गाड़ी किसी मकान से बिलकुल सटकर गुजरती है।
पहाड़ी चढ़ाइयों पर चढ़ते समय यह अंग्रेजी के यू, डब्‍ल्‍यू और क्‍यू अक्षरों की तरह चलती है। जगह-जगह लूप बने हैं। गाड़ी जब एक वृत्‍त की तरह घूमकर पहाड़ों पर चलती है तो उसे 'लूप' कहते हैं।
हमने सुबह नौ बजे न्‍यू जलपाइगुड़ी से यह छोटी गाड़ी पकड़ी और लगभग ग्‍यारह घण्‍टे बाद रात में आठ बजे दार्जिलिंग पहुंचे। सिलीगुड़ी के आगे दोनों तरफ पहाड़ी पेड़ों और चाय-बागानों के दृश्‍य देखते बनते हैं। दागापुर से चाय-बागानों का घना सिलसिला आरंभ होता है और पूरे रास्‍ते में इन बागानों की सुंदरता देखकर हम खुशी से फूले नहीं समाते।
ये चाय-बागान इस क्षेत्र की प्रमुख फसल हैं। दार्जिलिंग की चाय तो संसारभर में प्रसिद्ध है। इस समय भारत में करीब सात सौ चाय-कम्‍पनियां हैं जिनमें उत्‍पन्‍न होने वाली विभिन्‍न किस्‍मों की चाय 15 रुपये से 200 रुपये किलो तक बिकती है। पहाड़ी ढलानों पर सीढि़यों वाले खेतों में चाय की खेती होती है। चाय की पत्तियां चुने जाने की सुविधा के लिए चाय के पौधों को डेढ़ मीटर से अधिक नहीं बढ़ने दिया जाता। आठ-दस दिनों के अंतर पर पत्तियों को तोड़ लिया जाता है। चाय की कच्‍ची पत्तियों से लेकर पेय तैयार करने तक जिनती विधियां पूरी की जाती हैं, हमने उन्‍हें दार्जिलिंग के चाय बागानों में देखा। चाय चुनने का काम स्त्रियां ही करती हैं।
कुर्सियोग-स्‍टेशन से आगे ठण्‍डक महसूस होने लगती है और 'घूम' पहुंचते-पहुंचते अच्‍छी-खासी ठण्‍ड पड़ने लगती है। 'घूम'-स्‍टेशन विश्‍व में सबसे अधिक ऊंचाई 2,250 मीटर है। इससे लगभग 210 मीटर नी
चे दार्जिलिंग है।
दार्जिलिंग के पहले एक खूबसूरत लूप है 'बातिसिया'। छुक-छुक-छुक करती हुई गाड़ी दार्जिलिंग-स्‍टेशन (ऊंचाई 2,043 मीटर) पर आ खड़ी होती है। यहीं रेलवे-लाइन भी समाप्‍त हो जाती है।
दार्जिलिंग-शहर की औसत ऊंचाई 2,176 मीटर है। कुछ ही दूरी पर उत्‍तर में सिक्किम और पश्चिम में नेपाल है। भूटान भी यहां से दूर नहीं है। दार्जिलिंग में टाइगर-पहाड़ी (हिल) से सूर्योदय देखना, कंचनजंघा का दृश्‍य, बच्‍चा-रेलगाड़ी, चाय-बागान और पुरानी नगरपालिका विशेष प्रसिद्ध है।
टाइगर-पहाड़ी जिसकी ऊंचाई 2,770 मीटर है, दार्जिलिंग से चौद‍ह किलोमीटर दूरी पर है। यहां जाने के लिए 'घूम' आना पड़ता है। 'घूम' से इसकी दूरी 6 कि.मी. है जिसमें डेढ़ किलोमीटर का चढा़व बहुत कठिन एवं थका देने वाला है अत: अक्‍सर लोग जीप से जाते हैं। अपने मित्रों के साथ प्राकृतिक आनन्‍द लेने के लिए में पैदल ही गया। सुन्‍दर प्राकृतिक शोभा देखकर यात्री अपने को भी भूल जाते हैं।
चार बजे भोर के पहले ही हम वहां पहुंचे। उस समय 250-300 घुमक्‍कड़ सूर्योदय देखने के लिए वहां एकत्रित थे। चार बजने के कुछ देर बाद आकाश पर हल्‍के गुलाबी रंग की लालिमा फैलने लगी। जून का प्रथम सप्‍ताह था। सूर्योदय के ठीक पहले पूर्व की ओर आसमान पर एक व्‍यक्ति की अस्‍पष्‍ट छाया उभरने लगी और उसने खींचने-जैसा अभिनय किया और उस छाया के लुप्‍त होते ही सूरज का हंसता गोला आसमान से झांकने लगा।
कैमरा वाले सावधान हो गये। इस व्‍यक्ति की छाया के बारे में कहा जाता है कि यह सूर्य का सारथी अरूण है, जब कि कुछ लोगों के अनुसार किसी पर्वत-शिखर की छाया पड़ने से ऐसा होता है। जो भी हो, टाइगर-पहाड़ी से सूर्योदय देखना हर एक के लिए कभी न भूलने वाला दृश्‍य है। कंचनजंघा की चोटियां सोने-जैसी चमक रही थी, सूर्योदय के समय कंचनजंघा-शिखर बिलकुल पीला लगता है। यह शिखर भारत में सबसे ऊंचा पर्वत-शिखर है (ऊंचाई 8,598 मीटर) दोपहर में यह दूध की तरह सफेद दिखता है।
दार्जिलिंग में हिमालय-पर्वतारोहण-शिक्षण-संस्‍थान एवं संग्रहालय दर्शनीय है। इसकी स्‍थापना तेनजिंग नोर्गे एवं एडमण्‍ड हिलेरी के एवरेस्‍ट शिखर पर पहली बार चढ़ने के सम्मान में की गई थी। वे दोनों 29 मई, 1953 को दिन के साढ़े ग्‍यारह बजे संसार की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्‍ट (ऊंचाई 8,848 मीटर) पर चढ़ने में सफल हुए थे। इस संग्रहालय में उन दोनों के द्वारा प्रयुक्‍त सभी कपड़े, यंत्र व अन्‍य सामग्रियां रखी गयी हैं। एवरेस्‍ट से लाये गए पत्‍थर के टुकड़े भी वहां रखे हैं। पर्वतारोहण-संस्‍था के ठीक बगल में लगभग पचास सीटों वाला सिनेमाघर है जिसमें पर्वतारोहण-संबंधी अंग्रेजी फिल्‍में दिखाई जाती हैं।
यहां की 'लाल कोठी' एक खूबसूरत और मशहूर बंगला है जहां अक्‍सर फिल्‍मों की शू‍टिंग होती रहती है। दार्जिलिंग-नगरपालिका की स्‍थापना 1879 में अंग्रेजों ने की थी। यहां के अन्‍य दर्शनीय स्‍थानों में राजभवन, गोलघर (वर्धमान-प्‍लेस) सूर्य-मंदिर, सेंचेल-झील, जापानी मंदिर, रेस-कोर्स, वनस्‍पति-उद्यान, सरवरी पार्क, नायडू-स्‍मृति-भवन और चिडि़याघर आदि प्रसिद्ध हैं।
मकान लकड़ी के बने होते हैं। छतें तिरछी एवं ढलवां होती हैं। लोग यहां पर झरनों से पानी एकत्र किया करते हैं। पानी की कमी है। इसी कारण सार्वजनिक नल कम दिखाई देते हैं। पानी इतना ठण्‍डा होता है कि एक गिलास से अधिक से अथिक पिया नहीं जा सकता। प्रत्‍येक घर में झबरा-जा‍ति के कुत्‍ते पाये जाते हैं। यहां के निवासी गर्मी के डर से नीचे(मैदानों में) आना पसन्‍द नहीं करते। मुख्‍य भाषा नेपाली और बंगला है।
यहां के अधिकतर दुकानदार पूर्वी उत्‍तरप्रदेश और बिहार के रहने वाले हैं। घूम में एक बलिया-निवासी ने, यह जानकर कि हम उत्‍तरप्रदेश से आये हैं, जलपान कराया और कई बार अनुरोध करने पर भी यह कहकर पैसा नहीं लिया कि हम लोग बार-बार नहीं मिलेंगे।

Monday, June 28, 2010


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

बनारस गंगा नदी के तट पर स्थित है। जिस तरफ काशी नरेश का किला है, उसी तरफ मेरा पैतृक निवास है। मेरा निवास काशी खण्‍ड में है। मुझे पता नहीं परंतु लोगों का मानना है कि बड़े ही सौभाग्‍यशाली लोग काशी खण्‍ड में निवास करते हैं। इस दृष्टि से प्रसिद्ध कथाकार काशीनाथ सिंह भी काशी खण्‍ड में ही रहते हैं। खैर, मेरे घर के सामने गंगा नदी तीस साल पहले ऐसे बहतीं थीं जैसे प्रशान्‍त महासागर। आजकल तो.............. रहने दीजिए, इस विषय पर फिर कभी। जब होश संभाला तो पता चला कि पड़ोस में ही सारनाथ है। जो ऐतिहासिकता से भरा पड़ा है। वहॉं कुछ अपने दोस्‍तों के साथ कब चक्‍कर लगा आया, आज तक ठीक-ठीक याद नहीं आता। लेकिन यह याद आता है कि जब जयशंकर प्रसाद की कहानी ममता पढ़ी। कहानी में ममता जिस स्‍थान पर छिपी थी उसी स्‍थान पर मैं अपने को खड़ा करके सामने दूर तलक खेतों को निहारता था। उस अष्‍टकोणीय खंडहर हो रहे भवन को मैं छू-छूकर देखता था। सारनाथ कितनी बार गया यह भी याद नहीं, पर यह याद है कि एक बार भोजपुरी फिल्‍मों के दिलीप कुमार कहे जाने वाले सुजीत कुमार, प्रेमानारायण, युनूस परवेज, हरि शुक्‍ला आदि के साथ वहॉं भोजपुरी फिल्‍म की शूटिंग हो रही थी। समय और भाग्‍य का कुछ पता नहीं होता। फिल्‍म की यही यूनिट मेरे गॉंव शेरपुर में एक साल बाद फिर आई, जिसमें आज के प्रख्‍यात कलाकार भरत कपूर भी शामिल थे और तो और ''गंगाघाट'' नामक भोजपुरी फिल्‍म में मुझे भी पुलिस इंस्‍पेक्‍टर का किरदार निभाने का मौका मिला। इस शूटिंग के दौरान मैंने बड़ी बारीकियों से तकनीकी चीजों को देखा, परखा और छुआ। लगभग दस दिन के प्रवास में मेरी यूनुस भाई से अच्‍छी खासी दोस्‍ती हो गई। अभी लगभग दो साल पहले युनूस भाई के निधन से तथा दो-तीन माह पूर्व सुजीत कुमार के निधन से काफी विचलित रहा। बहरहाल बात मैं सारनाथ की कर रहा था, तो आइये आपको सारनाथ ले चलता हूँ जो बनारस का ही एक उपनगर है :

विद्या, व्‍यवसाय और धर्म के केन्‍द्र के रूप में वाराणसी विश्‍व-विख्‍यात है। पास ही
बौद्धों का ऐतिहासिक केन्‍द्र सारनाथ भी है। वाराणसी से बस, तांगे या रिक्‍शे से सारनाथ आराम से पहुंच सकते है।
सारनाथ पहुंचने से पहले ही बाएं हाथ पर एक उंचे टीले पर अष्‍टकोण मंदिरनुमा इमारत दिखायी देती है। 1558 में अकबर ने अपने पिता हुमांयु की याद में इसे बनवाया था। इसे चौखण्‍डी स्‍तूप कहते हैं। प्रख्‍यात हिंदी साहित्‍यकार स्‍व. जयशंकर प्रसाद ने अपनी कहानी ममता में इसी स्‍मारक का उल्‍लेख किया है।
सारनाथ का संग्रहालय बड़ा महत्‍वपूर्ण है। इसका निर्माण सारनाथ में खुदाई के दौरान प्राप्‍त सामग्री के संरक्षण के लिए 1901 में किया गया। इसमें सिंहशीर्ष अत्‍यंन्‍त भव्‍य है। यही हमारा राज-चिन्‍ह भी है। इसमें चार सिंह हैं जो अपने आगे के दोनों पैर पृथ्‍वी पर टेककर पीछे पीठ मिलाकर बैठे हैं।
उनके नीचे गोल पट्टी पर एक सिंह, एक घोड़ा,एक हाथी और एक सांड की दौड़ती मूर्तिया हैं। इसके नीचे उलटा कमल बना हुआ है, जो भारतीय संस्‍कृति का प्रतीक माना जाता है। लाल पत्‍थर की बुद्ध प्रतिमा पर पायी जाती है। पूरा संग्रहालय बुद्ध तथा देवी-देवताओं आदि की मूर्तियों एवं प्राचीन दुलर्भ सामग्री से भरा पड़ा है।
संग्रहालय से निकल कर उत्‍तर की ओर खंडहर में घुसते हैं। यह क्‍या,खंडहर और रमणीक? खंडहर के अगल-बगल बाग, हरे-भरे मैदान, रंग-बिरंगे फूलों की सघन लताएं भ्रम में डाल देती हैं कि हम खंडकर में हैं या कहीं और! मकानों कों बनावट, नींव,चबूतरे आश्‍चर्य में डाल देते हैं। 1851 में मेजर कीटो
को यहां खुदाई के दौरान मिट्टी के पात्रों में पका हुआ चावल-दाल रखा मिला था। इससे यह अनुमान लगता है कि यह किसी बड़े भयंकर एवं आकस्मिक अग्निकाण्‍ड के कारण नष्‍ट हो गया था, जिससे भिक्षुओं को सब कुछ छोड़कर भागना पड़ा। यहीं पास में 1824 में बना भव्‍य जैन मंदिर है जिसमें जैनियों के ग्‍यारहवे तीर्थकर
श्रेयांसना‍थ की प्रतिमा है। उनका जन्‍म इस मंदिर से डेढ़ किलोमीटर दूर सिंहपुर नामक गांव में था।
सारनाथ का धमेक स्‍तूप लगभग 44 मीटर ऊंचा है। लोग 'धमेक'शब्‍द को धर्मचक्र का अपभ्रंश बताते हैं। यह स्‍तूप संभवत: अशोक ने बनवाया था। गुप्‍तकाल में कलात्‍मक चित्रकारी से युक्‍त पत्‍थर इसकी बाहरी दीवालों पर जड़ दिए गए थे। यह स्‍तूप अशोक ने उस स्‍थान पर बनवाया जहां बुद्ध ने सर्वप्रथम अपने पांच साथी भिक्षुओं को धर्म-चक्र-प्रवर्तन का उपदेश दिया था। अब चलिए, पशु-पक्षियों के संसार यानी मृगदाव की ओर। मृगदाव के बारे में निम्‍न कथा कही जाती है-
जब बोधिसत्‍व ने हिरन के रूप में जन्‍म लिया था, उस समय उन्‍होंने काशी के राजा से वचन ले लिया था कि वह सब मृगों का शिकार न करेंगे बल्कि उनके पास प्रतिदिन एक हिरण स्‍वयं चला जाया करेगा। एक दिन गर्भिणी हिरनी की बारी आयी। उसने बोधिसत्‍व से अपने शिशु को बचाने के लिए कहा। मृगरूपी बोधिसत्‍व ने राजा के सम्‍मुख प्रश्‍न रखा-''राजन्, इसकी मृत्‍यु का अर्थ है, इसके गर्भस्‍थ शिशु की हत्‍या जो कि सर्वधा अनुचित है। कृपया आप बतायें कि क्‍या किया जाये?'' राजा ने इस तर्क से बेहद प्रसन्‍न होकर मृगों को अभयदान दे दिया। अब मृग स्‍वच्‍छन्‍द होकर वहीं रहने लगे। मृगों के आवास के कारण ही इसका नाम 'मृगदाव' पड़ गया।
अब नये विहार की ओर चलें जिसे धर्मपाल ने 1901 में बनवाया था। धर्मपाल ने मूलगंध-कुटी का निर्माण बड़े सुन्‍दर ढंग से करवाया है। इसका नाम महात्‍मा बुद्ध के आवास मूलगंध कुटी (सुगन्धित आवास) के आधार पर रखा गया है। इसकी भीतरी दीवारों पर भगवान बुद्ध का सम्‍पूर्ण जीवन-चरित्र सुन्‍दरता से जापानी चित्रकार कोसेत्‍सु नोसु ने उतारा है। धर्मपाल ने सारनाथ की काया-पलट की। उनकी मृत्‍यु 29 अप्रैल 1933 को हुई। मृगदाव के पास ही उनकी समाधि है।
यहां के अन्‍य दर्शनीय स्‍थलों में बोधिवृक्ष, चीनी मंदिर, धर्मपाल की मूर्ति, तिब्‍बती मंदिर, शिव मंदिर, महाबोधि विद्यालय आदि प्रमुख हैं।
श्रावण के महीने में यहां प्रत्‍येक सोमवार को बहुत बड़ा मेला लगता है। इस समय यहां देशी-विदेशी पर्यटक भारी मात्रा में आते हैं। यहीं आकाशवाणी वाराणसी का प्रसारण-केंद्र भी है। सारनाथ आकर्षक एवं एक अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण ऐतिहासिक स्‍थल है।

Wednesday, June 23, 2010


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

एक कहानी कुछ आपबीती कुछ जगबीती....

विश्‍व प्रसिद्ध नगरी बनारस के दक्षिणी किनारे गंगातट पर मेरा जन्‍म हुआ, गंगाजी की कल-कल करती पावन नीले जल और उपर नीले आसमां ने पूरी दुनिया घूमने का शौक पैदा कर दिया, शुरु किया चारों तीर्थ और द्वादश ज्‍योतिर्लिंग से। चारों तीर्थ तो अध्‍यापन काल में ही पूरे हो गए। द्वादश ज्‍योतिर्लिंग का सपना दिनांक 19 जून, 2010 को देवघर स्थित बाबा बैजनाथ जी के दर्शन से हुआ। बाबा विश्‍वनाथ (बनारस) का मंदिर तो मेरे पुश्‍तैनी घर से महज 10 किलोमीटर की दूरी पर है।
आने वाले दिनों में भारत के हर अंचल में आपको अपने साथ ले चलूँगा। आज श्रीगणेश करते हुए आपको बाबा बैजनाथ धाम की कथा बताता हूँ :

कथा ज्‍योतिर्लिंग महादेव की

ज्‍योतिर्लिंग शब्‍द महादेव का ही पर्याय है। पुराणों में, विशेषत: 'शिवपुराण' में कथा है कि विष्‍णु की नाभि से जब ब्रह्मा की उत्‍पत्ति हुई, तब वह बहुत व्‍यग्र हो उठे। विष्‍णु ने उनकी व्‍यग्रता देख कर कहा कि आप व्‍यर्थ व्‍यग्र हो रहे हैं। आप तो सृ‍ष्टि-विस्‍तार के लिए ही उत्‍पन्‍न किए गए हैं। विष्‍णु की यह बात ब्रह्मा को लग गई। वह अहंकारवश अपने को विष्‍णु से बड़ा मानने की महत्‍वाकांक्षा रखते थे, फलत: विष्‍णु से लड़ने को तैयार हो गए। इन दोनों के विवाद के निर्णयार्थ एक विराट ज्‍योतिर्लिंग (ज्‍योतिर्मय लिंग) प्रकट हुआ, जिसके चारों ओर भयंकर ज्‍वाला फैल रही थी। इसके आदि मध्‍य और अन्‍त का कोई पता नहीं था।
ब्रह्मा और विष्‍णु के लिए यह शर्त रखी गई कि जो इस विराट लिंग के ओर-छोर का पता करने में समर्थ होगा, वही बड़ा माना जाएगा। दोनों शर्त के अनुसार पता लगाने को निकल पड़े। जब दोनों लौटकर आये, तब ब्रह्मा झूठ बोल गए कि उनको इस ज्‍योतिर्लिंग के आदि-अन्‍त का पता मालूम हो गया है। इस बात की सत्‍यता के सन्दर्भ में केतकी पुष्‍प (केवड़ा) ने ब्रह्मा की ओर से झूठी गवाही दी। इसीलिए केतकी पुष्‍प का शिवलिंग पर अर्पण निषिद्ध हो गया है। परन्‍तु विष्‍णु ने सच-सच कहा कि वह ज्‍योतिर्लिंग के आदि-अन्‍त का पता नहीं पा सके। अत: निर्णय हुआ कि विष्‍णु ही ब्रह्मा से बड़े देवता हैं।

भारत में शिव के बारह ज्‍योतिर्लिंग या प्रधान लिंग प्रति‍ष्ठित हैं, जो 'द्वादश ज्‍योतिर्लिंग' के नाम से प्राख्‍यात हैं। ये हैं-सौराष्‍ट्र (सूरत, गुजरात) में सोमनार्थ, श्रीशैल पर्वत पर मल्लिकार्जुन, उज्‍जयिनी में महाकाल, नर्मदा-तट पर अमरेश्‍वर में ओंकारेश्‍वर, हिमालय पर केदारनाथ, डाकिनी-पिशाचिनी के समाज में भीमशंकर, काशी में विशेश्‍वर, गोमती-तट पर त्र्यम्‍बकेश्‍वर, चिताभूमि में वैद्यनाथ, दारुका-वन में नागेश्‍वर, सेतुबंध में रामेश्‍वर और इलातीर्थ के शिवालय में घृष्‍णेश्‍वर या घुसृणेश्‍वर।

इन द्वादश ज्‍योतिर्लिंगों में वैद्यनाथ ज्‍योतिर्लिंग के विषय में पाठान्‍तर मिलता है। 'बृहत्‍स्‍तोत्ररत्‍नाकर' (181 स्‍तोत्र-संख्‍या) में द्वादश ज्‍योतिर्लिंगों की प्रार्थनास्‍तोत्र के दो प्रकार मिलते हैं। प्रथम प्रकार के स्‍तोत्र में 'वैद्यनाथ' के बारे में लिखा है :

पूर्वोत्‍तरे प्रज्‍वलिकानिधाने
सदा वसन्‍तं गिरिजासमेतम्।
सुरासुराराधितपादपद्मं
श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि।।

इसमें 'पूर्वोत्‍तरे प्रज्‍वलिका निधाने' पाठ से स्‍पष्‍ट है कि पूर्वोत्‍तर भारत के 'प्रज्‍वलिका-निधान' अर्थात् चिताभूमि में वैद्यनाथ प्रतिष्ठित हैं।
दि्वतीय प्रार्थना-स्‍त्रोत में पाठ है- 'परल्‍यां वैद्यनाथं च।' इससे कुछ लोग हैदाराबाद (दक्षिण) के निकट परली ग्राम में प्रतिष्ठित शिवलिंग को वैद्यनार्थ शिवलिंग मानते हैं, किंतु 'शिवपुराण' (अध्‍याय 38) में द्वादश ज्‍योतिर्लिंगों के स्‍थानों का जो निर्देश है, उसमें 'वैद्यनाथं चिताभूमौ' का स्‍पष्‍ट उल्‍लेख है और यह चिताभूमि बिहार (अब झारखण्‍ड) वैद्यनाथ शिव के क्षेत्र में अवस्थित है। इनके लिंग की, रावण के द्वारा की गई स्‍थापना की कथा भी प्रर्याप्‍त मिथकीय होते भी अविश्‍वसनीय नहीं है। वैद्यनाथ-क्षेत्र में इस पुराण कथा के कई वृत्‍त-साक्ष्‍य आज भी विद्यमान हैं। इसलिए वैद्यनाथ शिव को 'रावणेश्‍वर वैद्यनाथ' भी कहा जाता है।

'लिंग' शब्‍द का रहस्‍य और लिंगार्चन :

'लिंग' का साधारण अर्थ चिन्‍ह या लक्षण है। जैसे : पुलिंग, स्‍त्रीलिंग। देव चिन्‍ह के अर्थ में 'लिंग' शब्‍द शिवलिंग के लिए ही प्रयुक्‍त है। देव-प्रतिमाओं को 'मूर्ति' कहते हैं। परंतु 'लिंग' में आकार या रूप का उल्‍लेख नहीं है। यह चिन्‍ह मात्र है और चिन्‍ह पुरुष की जननेन्द्रिय जैसा है, जिसे 'लिंग' कहते हैं। परन्‍तु 'स्‍कन्‍दपुराण' में 'लयनात् लिंगमुच्‍यते' कहा गया है। अर्थात्, लय या प्रलय को 'लिंग' कहते हैं। प्रलयाग्नि में सब कुछ भस्‍म होकर शिवलिंग में समा जाता है। यहॉं तक कि वेद, शास्‍त्र आदि भी लिंग में लीन हो जाते हैं। फिर, सृष्टि के आदिकाल में लिंग से ही सब कुछ पुन: प्रकट होते हैं। अत:, 'लय' से 'लिंग' शब्‍द का उद्भव (लयं गच्‍छति इति लिंगम्) सही है। यह एक संयोग की बात है कि 'लिंग' शब्‍द के अनेक अर्थों में लोक-प्रसिद्ध पुरुष-जननेन्द्रिय अर्थ अश्‍लील है किंतु वैदिक शब्‍दों का यौगिक अर्थ लेना ही समीचीन माना जाता है। यौगिक अर्थ अथवा व्‍युत्‍पत्तिजन्‍य अर्थ में अश्‍लीलता नहीं रह जाती। लौकिक अर्थ में जो अश्‍लील और अनुचित प्रतीत होता है, वही आध्‍यात्मिक अर्थ में श्‍लील और समुचित हो जाता है।

इसी प्रकार 'भग' शब्‍द लौकिक अर्थ में 'स्‍त्री योनि' के लिए प्रचलित है, किंतु वैदिक और आध्‍यात्मिक अर्थ में समग्र ऐश्‍वर्य, समग्र धर्म, समग्र यश, समग्र सम्‍पत्ति, समग्र ज्ञान और समग्र मोक्ष साधन (वैराग्‍य आदि) को 'भग' कहा गया है। इन्‍हीं छह ऐश्‍वर्यों को धारण करने वाले को 'भगवान' कहते हैं। और फिर भगवान सूर्य का भी एक पर्याय 'भग' है ('इनो भगो धामनिधि:'-अमर-कोष)।

लिंगार्चन में अश्‍लीलता की कल्‍पना परम मूढ़ता, घोरतर नास्तिकता और शास्‍त्र में सर्वथा अनभिज्ञता है। वास्‍तव में यह स्‍त्री-पुरुष की जननेन्द्रिय की पूजा नहीं है, बल्कि विश्‍व-नियन्‍ता ईश्‍वर के स्‍वरूप का चिन्‍ह है। इसी आदिपुरुष शिव के लिंग और अनादि प्रकृति पार्वती की योनि से समस्‍त सृष्टि उत्‍पन्‍न होती है। योन्‍याकार अर्घे में प्रतिष्ठित लिंग-रूप शिवकी जो पूजा शिव मंदिरों या घरों में की जाती है, वह वस्‍तुत: पुरुष और प्रकृति के लिंग और योनि के संयोग (शैव दर्शन में इसे 'कमल-कुलिश योग' कहा गया है) से होने वाली जागतिक सृष्टि का संकेतक है। इसीलिए शिव और पार्वती समस्‍त संसार के माता-पिता हैं। महाकवि कालिदास ने 'रघुवंश महाकाव्‍य' के मंगलाचरण में शिव-पार्वती को जगत्पिता और जगन्‍माता कहा है - 'जगत: पितरौ वन्‍दे पार्वती-परमेश्‍वरौ।' माता-पिता के संयोग को यदि अश्‍लील मान लिया जाए, तो सारी सृष्टि ही अश्‍लील हो जाएगी। अतएव, इस संदर्भ में अश्‍लील दृष्टि की संकीर्णता नितरां हेय है। गोस्‍वामी तुलसीदस ने भी माता-पिता की कामचेष्‍टा को वर्णन के विरुद्ध बताया है।
जगत मातु पितु संभु भवानी।
तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी।।
(बालखण्‍ड : 103-2)

पार्थिव-पूजा और जलाभिषेक :

भारतवर्ष में ज्‍योतिर्मय शिवलिंग की पार्थिव-पूजा और पाषण-पूजा विशेष प्रचलित है मिट्टी के बने लिंग की अभिषेक-पूजा को 'पार्थिव-पूजा' कहते हैं और पाषाण-निर्मित लिंग की पूजा 'पाषाण-पूजा' कही जाती है। हिमालच-क्षेत्र में तो अमरनार्थ शिव के हिमलिंग का पूजन होता है। बिहार के भागलपुर जिले में स्थित प्राचीन 'गोनूधाम' के शिव-मंदिर में गंगा की मृत्तिका के लिंग की पूजा होती है। इस मृण्‍मय लिंग पर अर्पित जल को पीने से सर्पदंश से विष-मूर्च्छित लोग जी उठते हैं। यह विषपाणी शिव के मृत्‍युंजय रूप की प्रत्‍यक्ष महिमा है।
मुजफ्फरपुर क्षेत्र में शिव की पार्थिव-पूजा में एक लाख शिवलिंग गंगा की मिट्टी से बनाये जाते हैं और पर्याप्‍त ऋद्धि-समृद्धि के साथ उनका पूजन होता है। इसे 'लखवर' ('लक्षावली') पूजा कहा जाता है।
सामान्‍यतया, शिव को जलाभिषेक-पूजा अतिशय प्रिय है। वह जलाभिषेक के इतने प्रेमी हैं कि उन्‍होंने साक्षात् अपनी प्रेयसी गंगा को अपने जटाजाल में रख लिया है, ताकि गंगा उनका निरन्‍तर जलाभिषेक करती रहें। शिव के ज्‍योतिर्लिंग का अभिषेक 'रुद्राध्‍याय' के वैदिक मन्‍त्रों के पाठ से किया जाता है। इसमें शिव की संस्‍तुति से सम्‍बद्ध वेदमंत्रों की रचना एकादश अनवाकों (अध्‍यायों) में की गई है। ये मन्‍त्र बहुत ही शक्तिशाली और भगवान रुद्र के लिए अतिशय प्रीतिकर हैं। 'मेरुतन्‍त्र' में रुद्रपाठ के तीन भेद कहे गए हैं- अघुरुद्र, महारुद्र और अतिरुद्र। शिव के ज्‍येातिर्लिंग का अभिषेक प्राय: लघु रुद्र विधि से सम्‍पन्‍न होता है। जो शिवभक्‍त लघु रुद्र विधि से लिंगाभिषेक करता है। जलाभिषेक का शिव-स्‍तुतिपरक पहला मन्‍त्र है :
ओं नमस्‍ते रुद्र मन्‍यव उतो त इषवे नम:।
बाहभ्‍यामुत ते नम:।। (रुद्राध्‍याय)

ज्‍योतिर्लिंग का पूर्ण अभिेषेक एक लाख मन्‍त्रों द्वारा होता है।